संचालक व अध्यक्ष – प्रो. मदनमोहनपाठक

     विदेह (राजा जनक) तथा महर्षि वाल्मीकि (रामायण के प्रणेता) तथा याज्ञवल्क्य (आचार-व्यवहार-प्रायश्चित-संज्ञक तीनों काण्डों से सम्वलित याज्ञवल्क्य-स्मृति नामक धर्मशास्त्रग्रन्थ प्रणेता) की तप:स्थली (वर्तमान में बिहार प्रान्त के) चम्पारण्य (पूर्वीचम्पारण मण्डल) की पावन धरा के पटपरिया ग्राम में द्विजकुल में सुविख्यात श्रौत-स्मार्त कर्मनिष्ट पण्डितप्रवर रामगोविन्दपाठक के पौत्र पं. नबाबपाठक के पुत्र पण्डित बैद्यनाथपाठक एवं श्रीमती लालमतीदेवी के घर में आपका जन्म हुआ। आप जन्म से ही मेधावी तथा कर्मनिष्ठ रहे हैं । आद्य शिक्षा अपने पू.पिताश्री के चरणों में बैठ कर प्राप्त की । तदनन्तर मोतिहारी-धर्मसमाज, ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम वेदीवन प्रभृति तात्कालीन अनेक प्रतिष्ठित संस्थाओं में अध्ययन करते हुए श्रीकामेश्वरसिंह-संस्कृत-विश्वविद्यालय-दरभंगा बिहार से फलितज्योतिषाचार्य कक्षा में (सभी विभागों में) सर्वाधिक अंक प्राप्त कर १९८७ में उत्तीर्ण हुए । आपको शास्त्री (प्रतिष्ठा) कक्षा में विश्वविद्यालय में द्वितीय तथा आचार्य कक्षा में विश्वविद्यालय के समग्र विषयों में प्रथम-स्थान की प्राप्ति हुई। आपने फलितज्योतिष का अध्ययन कर सिद्धान्त ज्योतिष को पढ़ने के लिए श्रीजगन्नाथधाम की यात्रा की । जहाँ श्रीनिवासआश्रम में रहकर श्रीसदाशिवकेन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठपुरी से सिद्धान्त विषय के अध्ययन के साथ आजीविका विमर्श: विषय पर विद्यावारिधि की उपाधि प्राप्त की । यहाँ भगवान् जगन्नाथजी की क्षत्रछाया में बहुभाषाविद् डॉ. हरिहरझा जी, डॉ. सर्वनारायणझाजी तथा डॉ. ए. पि. सच्चिदानन्दजी जैसे महा-मनीषियों का आपको पूर्ण सहयोग तथा दिग्दर्शन प्राप्त हुआ । तदनन्तर भगवान जगन्नाथ जी की प्रेरणा एवं प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रम् की ज्ञान-पिपासा ने कुछ और पढने को बाध्य किया । परिणामस्वरूप ज्योतिष जगत् के तत्कालीन परमाचार्य महामहोपाध्याय पण्डित कल्याणदत्तशर्माजी की सान्निध्यता प्राप्ति हेतु दिल्ली गये । वहीं दिल्ली विद्यापीठ से सिद्धान्तज्योतिष में आचार्य तथा शिक्षा-शास्त्री की उपाधि के साथ दृक्सिद्ध पञ्चांग निर्माण की प्रक्रिया को भी समझे । यहीं वेधशाला निर्माण, ग्रहगणित की प्रकिया तथा  निरन्तर अपनी साधना में निरत रहने वाले पण्डित कल्याणदत्तशर्मा जी ने अपने ज्ञानालोक से आपके जीवन को आलोकित किया। इस क्रम में डॉ. मण्डनमिश्रजी कुलपति, प्रो.शुकदेवचतुर्वेदी, प्रो.रामदेवझा, प्रो.ओकारनाथचतुर्वेदी,  प्रो.श्रीधरवाशिष्ठजी जैसे शास्त्र व संस्था के लिए समर्पित गुरुजनों का असीम आशीष एवं समुचित मार्गदर्शन भी प्राप्त हुआ ।

      तदनन्तर ज्योतिषशास्त्र के अध्यापनार्थ राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान ने आपको १० अक्तूबर १९९४ सोमवार को श्रीजगन्नाथधाम स्थित श्रीसदाशिवकेन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठपुरी में ज्योतिष-व्याख्याता के रूप में नियुक्त किया । यहीं से पण्डित कल्याणदत्तशर्मा जी के आदेश से चित्रापक्षीय निरयण दृक्सिद्ध श्रीजगन्नाथपञ्चांगम् तथा भास्करोदय: नामक ज्योतिष पत्रिका का सम्पादन प्रारम्भ किया । इसी क्रम में आपका २००२ जनवरी में उपाचार्य (Reader) पद पर चयन हुआ, और आपको केन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठ गरली (हि.प्र.) भेजा गया । जहाँ आपने संस्थान के नूतन परिसर में भौतिक संसाधनों के अभाव में भी लगभग साढ़े दस वर्षों तक उपाचार्य एवं ज्योतिष विभागाध्यक्ष के रूप में सेवा की । तदनन्तर आपका स्थानान्तरण राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के लखनऊ परिसर में हुआ और आपने ६ जून  २०११ सोमवार को वहाँ कार्यभार ग्रहण किया । इसी क्रम में दिनांक 13 March 2013 को संस्थान मुख्यालय दिल्ली में प्रोफेसर पद की अन्तर्वीक्षा हुई जिसमें आपने CAS के अन्तर्गत आर्थिक एवं वरिष्ठता के लाभ वाले प्रोफेसर पद को ही स्वीकार किया ।

      प्रो.पाठक अध्ययन काल से अध्यापन तथा अनुसन्धान कालावधि में  यत्रापि कुत्रापि गता: भवन्ति हंसा मही मण्डनमण्डनाय की उक्ति को चरितार्थ करते हुए निरन्तर संस्कृत एवं भारतीय संस्कृति की सेवा के साथ ज्योतिष शास्त्र के संरक्षण संवर्धन में लगे रहते हैं ।

      आपके अब तक अर्द्धशतक से अधिक शोधपत्र विभिन्न सम्मानित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं । विभिन्न विश्वविद्यालयों में अब तक २५ से अधिक विशिष्ट शास्त्रीय व्याख्यान,  लगभग १४ अनुसंधाताओं का नियमित मार्गदर्शन, पांच से अधिक ग्रन्थों का लेखन/सम्पादन, विगत १८ वर्षो से श्रीजगन्नाथपञ्चांगम् तथा विगत १४ वर्षों से भास्करोदय: नामक वार्षिक ज्योतिष शोधपत्रिका का प्रकाशन करते हुए ज्योतिष के ज्योति से समाज के सभी वर्गों को आलोकित कर रहे हैं । यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् उक्ति को आपके चरित्र से हृदयङ्गम करने वाले आपके विद्यार्थी-गण अपने को धन्य समझते हुए देश के विभिन्न भागों में संस्कृत तथा ज्योतिष को प्रचारित व प्रसारित करते हुए भारतीय संस्कृति की रक्षा में निरत हैं ।